‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालिए – इतिहास, लेखन और आलोचनात्मक दृष्टिकोण

भूमिका:

‘पृथ्वीराज रासो’ हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल का सबसे प्रसिद्ध और चर्चित ग्रंथ है। यह ग्रंथ न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि भारतीय इतिहास और संस्कृति का एक गौरवशाली प्रतीक भी है। इसे कवि चंदबरदाई द्वारा रचित माना जाता है, जो दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि और मित्र थे।
इस ग्रंथ में कवि ने पृथ्वीराज चौहान की वीरता, शौर्य, प्रेम, और देशभक्ति का अत्यंत प्रभावशाली वर्णन किया है। हालांकि, इस ग्रंथ की प्रामाणिकता को लेकर विद्वानों के बीच गहरा मतभेद रहा है।
प्रश्न उठता है — क्या यह रचना वास्तव में 12वीं शताब्दी में लिखी गई थी? या बाद के कवियों ने इसे विस्तार दिया?

‘पृथ्वीराज रासो’ का परिचय:

‘पृथ्वीराज रासो’ एक महाकाव्य है, जिसमें कवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान के जीवन, युद्धों, प्रेम कथा और मृत्यु तक की घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन किया है।
यह ग्रंथ मूल रूप में राजस्थानी और ब्रजभाषा मिश्रित अपभ्रंश में लिखा गया है। बाद के काल में इसमें अनेक संस्करण जोड़े गए, जिससे इसका वर्तमान रूप बहुत विस्तृत और परिवर्तित हो गया।

प्रामाणिकता का प्रश्न:

‘पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता’ पर चर्चा मुख्य रूप से तीन आधारों पर की जाती है:

  1. ऐतिहासिक प्रामाणिकता
  2. भाषाई प्रामाणिकता
  3. साहित्यिक प्रामाणिकता

1. ऐतिहासिक प्रामाणिकता:

इतिहासकारों का मानना है कि ‘पृथ्वीराज रासो’ में वर्णित कई घटनाएँ काल्पनिक हैं।
उदाहरण के लिए —

  • संयोगिता स्वयंवर की कथा, जिसमें पृथ्वीराज जयचंद की सभा से संयोगिता का अपहरण करता है, ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाणित नहीं है।
  • मोहम्मद गौरी से बदला लेने की कहानी, जिसमें कहा गया है कि बंदी बनाए जाने के बाद पृथ्वीराज ने गौरी को मार डाला — यह भी किसी ऐतिहासिक अभिलेख में नहीं मिलती।
  • कई युद्धों और राजाओं के वर्णन में कालानुक्रमिक त्रुटियाँ पाई जाती हैं।

इतिहास की दृष्टि से ‘पृथ्वीराज रासो’ को एक मिथकीय (mythical) और लोक-आख्यान आधारित रचना माना जाता है।
यह कृति इतिहास नहीं, बल्कि इतिहास का काव्यात्मक पुनःनिर्माण है।

2. भाषाई प्रामाणिकता:

‘पृथ्वीराज रासो’ की भाषा में अपभ्रंश, ब्रजभाषा, और राजस्थानी के मिश्रण का प्रयोग मिलता है।
यदि यह कृति वास्तव में 12वीं शताब्दी की होती, तो इसमें पुरानी अपभ्रंश भाषा का अधिक प्रयोग होना चाहिए था।
किन्तु इसमें अनेक ऐसे शब्द और रूप हैं जो 16वीं–17वीं शताब्दी की भाषा के हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि रासो का वर्तमान रूप बाद में संशोधित किया गया है।

3. साहित्यिक प्रामाणिकता:

साहित्यिक दृष्टि से ‘पृथ्वीराज रासो’ अद्भुत कृति है।
इसमें वीर रस, श्रृंगार रस और भक्ति भाव का उत्कृष्ट समन्वय मिलता है।
कवि ने पृथ्वीराज चौहान को एक वीर, प्रेमी और देशभक्त राजा के रूप में प्रस्तुत किया है।
इस काव्य में भाषा की ओजस्विता, वर्णन की गति और छंद का अनुशासन इसे साहित्यिक दृष्टि से महान बनाते हैं।

भले ही इसमें ऐतिहासिक त्रुटियाँ हों, लेकिन भावनात्मक सत्य और राष्ट्रभक्ति का आदर्श इसे अमर बना देता है।

विद्वानों के मत:

‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता को लेकर अनेक विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं:

  • डॉ. रामचंद्र शुक्ल ने इसे आंशिक रूप से प्रामाणिक माना और कहा कि “रासो का मूल अंश प्रामाणिक है, परंतु बाद में बहुत कुछ जोड़ा गया।”
  • डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि “रासो इतिहास नहीं, एक गौरवगाथा है।”
  • डॉ. नगेंद्र के अनुसार, “भाषा और शैली यह प्रमाणित करती है कि रासो का वर्तमान रूप मध्यकालीन है, न कि पृथ्वीराज के समय का।”
  • डॉ. श्यामसुंदर दास ने इसे लोककाव्य परंपरा से जुड़ी रचना बताया, जिसका उद्देश्य जनमानस में वीरता जगाना था।

सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व:

‘पृथ्वीराज रासो’ केवल एक काव्य नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और गौरव का प्रतीक है।
इसने मध्यकालीन समाज में वीरता, देशप्रेम और धर्मनिष्ठा की भावना को प्रबल किया।
लोककथाओं, नाटकों और कवित्त परंपरा में रासो की घटनाएँ आज भी जीवित हैं।
इस ग्रंथ ने राजस्थानी और हिंदी साहित्य दोनों को प्रभावित किया है।

समीक्षात्मक निष्कर्ष:

‘पृथ्वीराज रासो’ को इतिहास की दृष्टि से पूर्ण रूप से विश्वसनीय स्रोत नहीं माना जा सकता।
परंतु साहित्य और संस्कृति के दृष्टिकोण से यह एक अमूल्य दस्तावेज है।
इसमें यद्यपि कल्पना और अतिशयोक्ति है, परंतु इसके माध्यम से हमें राजपूत काल की वीरता, नारी सम्मान, और राष्ट्रप्रेम की झलक मिलती है।

अतः कहा जा सकता है कि —

“रासो सत्य नहीं, परंतु सत्य की भावना से प्रेरित काव्य है।”

निष्कर्ष:

‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता विवादास्पद है, किंतु इसका महत्व निर्विवाद है।
यह ग्रंथ न केवल एक वीर पुरुष की गाथा है, बल्कि मध्यकालीन भारत की भावनात्मक पहचान भी है।
इसकी कथा, भाषा और काव्यशैली ने हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है।
इतिहास भले इसे मिथक माने, पर जनमानस में यह सदा गौरव और प्रेरणा का प्रतीक रहेगा।

References (संदर्भ सूची):

  1. हिंदी विकिपीडिया:
    👉 पृथ्वीराज रासो – विकिपीडिया
    (इस स्रोत से रचना, भाषा, कवि और ऐतिहासिक विवरण प्राप्त किए गए हैं।)
  2. हजारीप्रसाद द्विवेदी:
    “हिंदी साहित्य का आदिकाल” – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
    (इस ग्रंथ में वीरगाथा काल और रासो साहित्य की ऐतिहासिक स्थिति का विश्लेषण मिलता है।)
  3. रामचंद्र शुक्ल:
    “हिंदी साहित्य का इतिहास” – नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी।
    (यह रचना पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता और रचनात्मक स्वरूप पर महत्वपूर्ण मत प्रस्तुत करती है।)
  4. डॉ. श्यामसुंदर दास:
    “हिंदी साहित्य का इतिहास”, खंड 1, प्रयाग।
    (इसमें रासो की भाषा, शैली और लोक परंपरा से संबंध स्पष्ट किया गया है।)
  5. डॉ. नगेंद्र:
    “हिंदी साहित्य और उसका इतिहास”, साहित्य भवन, आगरा।
    (इस पुस्तक में रासो की भाषा और समय निर्धारण पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण मिलता है।)
  6. आधुनिक विश्लेषण:
    👉 AskPur.com: पृथ्वीराज रासो का स्वरूप और महत्व
    (ऑनलाइन हिंदी शिक्षा प्लेटफ़ॉर्म AskPur से संदर्भित आधुनिक व्याख्या।)
  7. विश्वभारती विश्वविद्यालय – शोधपत्र:
    “Pṛithvīrāj Rāso: A Study in Historical and Literary Context” (Research Paper, 2019)
    (इस शोधपत्र में रासो की ऐतिहासिक सत्यता बनाम काव्यिक कल्पना पर अध्ययन किया गया है।)

संदर्भ: उपरोक्त लेख ‘पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता’ पर आधारित है, जिसमें विकिपीडिया, हिंदी साहित्य इतिहास ग्रंथों और AskPur.com के शैक्षणिक स्रोतों का प्रयोग किया गया है।

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